रीतिकाल की परिस्थितियां
रीति काल की परिस्थितियां:
साहित्य के निर्माण में युगीन वातावरण का विशेष
योगदान होता है। प्रत्येक युग का वातावरण राजनीति, समाज,
धार्मिक और
कला के मूल्यों द्वारा निर्मित होता है, इसलिए युग विशेष के
साहित्य के अध्ययन के लिए तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान
होना आवश्यक है। रीतिकाल की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में विभिन्न परिस्थितियों का
विवरण निम्नलिखित है
1.राजनीतिक
परिस्थिति:-
क] राजनीतिक दृष्टि से यह काल मुगलों के शासन के वैभव के
चरमोत्कर्ष और उसके बाद उत्तरोत्तर ह्रास, पतन और विनाश
का युग कहा जा सकता था।
ख] शाहजहां के शासनकाल में मुगल वैभव अपनी चरम सीमा पर रहा था।जहांगीर
ने अपने शासनकाल में राज्यों का जो विस्तार किया था, शाहजहां ने
उसकी वृद्धि की थी।
ग] इसके पश्चात शाहजहां के रुग्न होने और उसकी मृत्यु की अफवाह
फैलने के कारण 1658 ई. में उसके पुत्रों में सत्ता के लिए संघर्ष आरंभ होते ही
यह वैभवशाली साम्राज्य ह्रासोन्मुखी हो गया। उसका ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह को छोटा
पुत्र औरंगजेब ने हत्या कर ज्यो ही शासन की बागडोर संभाले त्यों ही जागीरदारों, राजाओं और हिंदुओं के धार्मिक उपद्रव आरंभ हो गये।
घ] औरंगजेब के पश्चात 1707 ई. में उसके
पुत्रों के बीच भी संघर्ष हुआ और उसका द्वितीय पुत्र मुअज्जम गद्दी पर बैठा।वह
यद्यपि कुछ उदार था,पर अधिक समय जीवित न रह सका।
उसके बाद 1712 ई. से इस साम्राज्य का पतन आरंभ होता है। लगभग 50 वर्ष तक शासन एक प्रकार से स्थिर न हो सका।
ङ] यह बात तो रही केंद्रीय शासन की, जहां तक प्रदेशों का प्रश्न है, रीति काव्य की रचना के क्षेत्रों- अवध, राजस्थान और बुंदेलखंड की कथा भी ऐसी ही है। अवध के विलासी
शासकों का अंत भी मुगल-साम्राज्य के समान कारूणिक रहा। राजस्थान में भी विलास और
बहू पत्नी प्रथा बढ़ गई थी। मुगल साम्राज्य के समान ही हिंदू रजवाड़ों और अवध के
नवाबों को अंततः अपना कारूणिक अंत देखना पड़ा।
2.सामाजिक अवस्था:- सामाजिक
दृष्टि से भी इस काल को आदि से अंत तक घोर अध:पतन का योग ही कहा जाना चाहिए।इस काल
में सामंतवाद का बोलबाला था और सामान्तशाही के जितने भी दोष हुआ करते हैं, उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव जनमानस के जीवन पर
ही पड़ रहा था।
क] सामाजिक व्यवस्था का केंद्र बिंदु बादशाह था और उसके अधीन
थे मनसबदार अथवा अमीर-उमराव। इनके बाद ओहदों के अनुसार दूसरे कर्मचारी आते थे और
सबका कर्तव्य कर्म अपने से ऊपर वालों को प्रसन्न करना था, नीचे वालों को ये मात्र संपत्ति समझते थे।
ख] इस युग में गरीबों की आर्थिक स्थिति अत्यंत शोचनीय थी और
शासक एवं संपन्न वर्ग श्रम किए बिना ही संपन्न था।
ग] जनसाधारण की चिकित्सा, शिक्षा, संपत्ति-रक्षा आदि का भी इस काल में कोई प्रबंध न था।ऐसी
शोचनीय अवस्था में यदि लोग भाग्यवादी अथवा नैतिक मूल्यों से रहित थे, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
घ] नारी को अपनी संपत्ति मानकर ही उसका भोग इनके जीवन का मूल मंत्र हो गया था। किसी की कन्या का अपहरण
अभिजात वर्गों के लोगों के लिए साधारण बात थी। अल्पायु में ही लड़कियों का विवाह
हो गया था। बेगमों और रक्षिताओं के अगणित संख्या के होते हुए भी ये लोग वेश्याओं
के यहां पड़े रहते थे, उनके इशारों
पर लोगों के भाग्य का निर्णय तक हो जाया करता था।
3.धार्मिक परिस्थिति:- सामाजिक अवस्था के समान इस युग में देश की सांस्कृतिक
अवस्था भी अत्यंत शोचनीय थी। अकबर, जहांगीर और
शाहजहां की उदारतावादी नीति तथा संतों और सूफियों के उपदेशों के परिणाम स्वरूप
हिंदू और इस्लाम संस्कृतियों के निकट आने का जो उपक्रम हुआ था, वह औरंगजेब की कट्टरता के कारण एक प्रकार से समाप्त हो चला
था।
क] हिंदी भाषी
क्षेत्रों में जिन वैष्णव संप्रदायों का प्रभाव था, उनके पीठधीश
लोभवश राजाओं और श्रीमानों को गुरु दीक्षा देने लगे थे।मंदिरों में भी ऐश्वर्य और
विलास की लीला होने लगी थी। यह स्थिति यहां तक पहुंच गई थी कि हिंदू अपने आराध्य
राम-कृष्ण का अतिशय श्रृंगार ही नहीं करने लगे थे, उनकी लीलाओं
में अपनी विलासी जीवन की संगति खोजने लगे थे।
ख] दूसरी ओर इस्लाम धर्म पर इस विलास-वैभव का सीधा प्रभाव तो
नहीं था,पर रूढ़िवादीता के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण यह जीवन की वास्तविकता
से हट गया था। नमाज-रोजा आदि के यथाविध पालन को ही धर्म समझने के कारण वह
आध्यात्मिक प्रभाव नहीं पड़ रहा था,जिससे व्यक्ति
के संस्कारों में उदारता आती है।
इस प्रकार हिंदू और मुसलमान - दोनों ही धर्म के मूलभूत
सिद्धांतों से दूर पड़ गए थे-केवल बाह्याचरण ही धर्मपालन रह गया था।
4.साहित्य एवं कलाओं की स्थिति:- साहित्य और कला की दृष्टि से यह युग प्रर्याप्त समृद्ध कहा जा सकता है। इस काल के कवि और
कलाकार यद्यपि साधारण वर्ग के व्यक्ति हुआ करते थे, तथापि अपने
आश्रय दाता मुगल सम्राटों अथवा देशी राजा व नवाबों से उन्हें इतना सम्मान मिलता था
कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों में उनकी गणना होती थी। क्योंकि उचित सम्मान कवि अथवा
कलाकार के सर्जन व्यापार को प्रोत्साहित करने में सबसे अधिक सहायक हुआ करता है।
अतएव यह स्वाभाविक ही था। इन लोगों ने अपनी अपनी कला का गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टि से अधिकाधिक विकास किया।
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